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अंक लिखने का इतिहास

अंक लिखने का इतिहास अधिकतर सभ्यताओं में लिपि के अक्षरों को ही अंक माना गया। रोमन लिपि के अक्षर I को एक अंक माना गया क्योंकि यह शक्ल से एक...

अंक लिखने का इतिहास

अधिकतर सभ्यताओं में लिपि के अक्षरों को ही अंक माना गया। रोमन लिपि के अक्षर I को एक अंक माना गया क्योंकि यह शक्ल से एक उंगली जैसा है। इसी तरह II को दो अंक माना गया क्योंकि यह दो उंगलियों की तरह है। रोमन लिपि के अक्षर V को ५ का अंक माना गया। यदि आप हंथेली को देखे जिसकी सारी उंगलियां चिपकी हो और अंगूंठा हटा हो तो वह इस तरह दिखेगा। रोमन X को उन्होंने दस का अंक माना क्योंकि यह दो हंथेलियों की तरह हैं। L को पच्चास, C को सौ, D को पांच सौ और N को हजार का अंक माना गया। इन्हीं अक्षरों का प्रयोग कर उन्होंने अंक लिखना शुरू किया। इन अक्षरों को किसी भी जगह रखा जा सकता था। इनकी कोई भी निश्चित जगह नहीं थी। ग्रीक और हरब्यू (Hebrew) में भी वर्णमाला के अक्षरों को अंक माना गया उन्हीं की सहायता से नम्बरों का लिखना शुरू हुआ।
नम्बरों को अक्षरों के द्वारा लिखने के कारण न केवल नम्बर लिखे जाने में मुश्किल होती थी पर गुणा, भाग, जोड़ या घटाने में तो नानी याद आती थी। अंक प्रणाली में क्रान्ति तब आयी जब भारतवर्ष ने लिपि के अक्षरों को अंक न मानकर, नयी अंक प्रणाली निकाली और शून्य को अपनाया। इसके लिये पहले नौ अंको के लिये नौ तरह के चिन्ह अपनाये जिन्हें १,२,३ आदि कहा गया और एक चिन्ह ० भी निकाला। इसमें यह भी महत्वपूर्ण था कि वह अंक किस जगह पर है। इस कारण सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि सारे अंक इन्हीं की सहायता से लिखे जाने लगे और गुणा, भाग, जोड़ने, और घटाने में भी सुविधा होने लगी। यह अपने देश से अरब देशों में गया। फिर वहां से 16वीं शताब्दी के लगभग पाश्चात्य देशों में गया, इसलिये इसे अरेबिक अंक कहा गया। वास्तव में इसका नाम हिन्दू अंक होना चाहिये था। यह नयी अंक प्रणाली जब तक आयी तब तक वर्णमाला के अक्षरों और अंकों के बीच में सम्बन्ध जुड़ चुका था। जिसमें काफी कुछ गड़बड़ी और उलझनें (Confusion) पैदा हो गयीं।
इस कारण सबसे बड़ी गड़बड़ यह हुई कि किसी भी शब्द के अक्षरों से उसका अंक निकाला जाने लगा और उस शब्द को उस अंक से जोड़ा जाने लगा। कुछ समय बाद गड़बड़ी और बढ़ी। उस अंक वही गुण दिये जाने लगे जो कि उस शब्द के थे। यदि वह शब्द देवी या देवता का नाम था तो उस अंक को अच्छा माना जाने लगा। यदि वह शब्द किसी असुर या खराब व्यक्ति का था तो उस अंक को खराब माना जाने लगा। यहीं से शुरू हुई अंक विद्या: इसका न तो कोई सर है न तो पैर, न ही इसका तर्क से सम्बन्ध है न ही सत्यता से। यह केवल महज अन्धविश्वास है।

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